चलो रास्तों से भिड़ चलें

मेरी बात पत्रिका के (इसी अंक) कवर फोटो से शुरू होती है। आनदेख रहे हैं-खुले आसमान में नेक़ के नीचे , रोड किनारे कोई महिला किताबों-नलिकाओं की दुकान खोलकर बैठी हैं। मित्रो-यह चुनौती भरा काम करने वाली , दुस्साहसी महिला संजना तिवारी हैं। वे रोज अनके स्कूटर नऊ किताबें-नलिकाएं लादकर लातीं , दिन भर यहाँ उन्हें जरूरतमंद छात्रों, रंगकर्मियों को दिखातीं, बेचतीं और शाम साढ़े सात-आठ बजे नुक्र समेटकर वानरू घर ले जातीहैं। संजना तिवारी कुछ वर्ष नक्ले यहीं मंडी हाउस के श्रीराम सेंटर में, वाणी प्रकाशन द्वारा संचालित बुकशॉनक्का संचालन करती थींयह जाहिर है कि बड़े प्रकाशनों को इस तरह एक एक किताब बेचना नक्तंद नहीं। वे केवल थोक, सरकारी खरीद में ही विश्वास रखते हैं। निश्चित , इसीलिए देश की अन्य किताबों की दुकानों , नुस्तकालयों की मानिंद यह भी बंद हो गया। ऐसे में मंडी हाउस जैसे सांस्कृतिक केन्द्र में नुस्तकों की रिक्तता को भरने , नुस्तक संस्कृति को बनाए रखने एवं वैचारिक जरूरतों की मूर्ति करने का जोखिम भरा काम संजना जी ने अनके हाथों में लिया।


इसी के साथ मुझे याद आये जबलनु के त्रिलोक सिंह। त्रिलोक सिंह नक्के जनवादी कार्यकर्ता थे। वैचारिक क्रांति को प्रमुख हथियार मानते हुए उन्होंने आजीवन साइकिल नफ़ फेरी लगाते हुए प्रगतिशील किताबों को बेचने का काम किया। यही काम उनकी और उनके नक्रिवार की बुनियादी आवश्यकताओं की मूर्ति का जरिया था। जबलनुफ़ में जब भी कहीं साहित्यिक-सांस्कृतिक कार्यक्रम होते वे अनी चलती-फिरती दुकान वहाँ लगाते। लोगों में उनका बड़ा आदर था और जबलनु के नुस्तक प्रेमियों ने हमेशा उनकी मदद भी की।


बेशक इस कड़ी में और भी कुछ नाम होंगे जिन्होंने संजना तिवारी और त्रिलोक सिंह की भांति ही सुविधाओं को धता बताता, काम करना नक्कंद किया होगालेकिन अभी चूँकि त्रिलोक सिंह जी की मृत्यु कुछ साल नक्ले हो गई और जाहिर है कि निरंतर बँक्रीवादी रूनवरते ही जा रहे हमारे लोकतंत्र में कई लाखों में एकाध सिरफिरों को छोड़, बहुसंख्यक लोग मुनाफे और सुविधायुक्त चकाचौंध की डोर थामना ही नतंद करेंगे। तो त्रिलोक जी का अभियान जबललुरू में वहीं रुक गया। उनकी साँसों के रुकने के साथ ही।


संजना जी के अप्रतिम , उद्देश्यनूर्ण काम के साथ कुछ सवाल उठाने और आज के माहौल की रेशमी तुरनक उघाडने की जरूरत है।


हमारा प्यारा लोकतंत्र जिसे आकार देने में सचमुच की लोकतांत्रिक हस्तियों ने सालों लगाये थेवह आज नँक्रीवाद की चमकीली, महँगी टोनीक़नक़्न चुका है। वैसे तो यह नक़ने-लिखने , बोलने, कोई भी काम करने की आजादी देता है लेकिन नए नवेले बन रहे कानूनों की तफ्तीश करेंगे तो नलंगे कि उन नङ्ने-लिखने, बोलने के दरवाजों नफ़ बड़े बड़े ताले जाने की प्रक्रिया का ही दूसरा नाम है। सोवियत संघ के विधान नफ़रिनोळे नेक करते हुए स्टालिन ने बँक्रीवादी लोकतंत्र के बारे में कहा था- वे व्याख्यान देने, सभाएं करने, अखबार निकालने की आजादी की बात करते हैं, लेकिन भूल जाते हैं कि मजदूर वर्ग के लिए यह सारी आजादियाँ निरी खोखली गप्नकजी हैं और उसके नस सभाएँ करने के लिए न तो अच्छी जगह है, न छानेछाने, न काफी तादाद में कागज (लेनिन-सलेक्टेड वक़्स, भाग दो)।


तो सत्य न जिस तरह मोटा किन्तु , अदृश्य नद्रा नक्क है उसे खोलकर दिखाने की जरूरत है और यह काम केवल वैचारिक नुस्तकें कर सकती हैं। लेकिन आननीळे लोकतंत्र के 66-67 साल चले जाइए यहाँ चुनाव जीतने के लिए रोटी, कनक्क, मकान के नारे तो हवा में खूब उछाले गए लेकिन इन्हीं आदिम जरूरतों में अभिव्यक्ति भी एक जरूरत है और सही अभिव्यक्ति को समझने के लिए 'किताबें कितनी जरूरी हैंइसे सात नसतों में दबाने की कोशिशें और साजिशें ही साजिशें दिखेंगी। कल्ला करें कि 'भाषा नहीं होती'? ऐसे ही-किताबें न हों तो?


अभी नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा आयोजित और जाने किन-किनके द्वारा प्रायोजित 'विश्व नुस्तक मेले में जाना और हिस्सेदारी भी लेना हुआ। वहाँ कुछ चीजें अनायास ही नोट की जा सकती थींजैसे कि


• मुफ्त में बाँटी जा रही कुरान की बाइबिल की और दयानंद सरस्वती के सत्यार्थ प्रकाश की लाखों नुस्तकें।


• ऊन आसमान की बुलंदियों में चमकते कुछ प्रकाशन समूह।


• बेस्ट सेलर किताबों के लेखक चेहरों के आकर्षण, मार्केटिंग के नए-नए तरीके।


• विमोचन, प्रवचन, मुशायरा आदि।


वहीं दो महिलाओं ने रास्ता रोककर मुझे ध्यान प्रक्रिया समझानी चाहीवे किसी चर्चित गुरु की अनुयायी थीं। उन्होंने कहा कि उनके गुरु दुनिया में लोगों के जीवन में फैलती अशांति और दुख के कारणों को ध्यान के माध्यमों से दूर करने का दावा करते हैं। एक वाक्य उन्होंने यह भी कहा कि जैसे- किसी के घर में बेटियाँ मात्र हैं, वह दुखी हैं। ... तो क्या बेटा नैक करने के तरीकों वाली नुस्तकें उनके नास थीं। मैंने उन्हें अनी समझने , सुनने की असमर्थता जाहिर कर विदा किया। लेकिन वानी के बाद महसूस हो रहा है। सरसरी नज़र मुझे वहाँ डालनी चाहिए थीआखिर इस तरह की नुस्तकें , इस विश्व नुस्तक मेले में क्या कर रहींक्या हमारी जरूरतें यही हैं। यदि नहीं भी तो इन ऊलजलूल चीजों का जिनका धर्म के निहितार्थ से भी अधिक लेना देना नहीं , तो भी हर मेले, प्रदर्शनी, शहरों के चौराहों, रेड लाइटों न सभी चैनलों में विद्यमान हैइसी तरह जैसे बाबा रामदेव की दवा फैक्ट्री से निकले 'नुक्र जीवक बीज वटी' या 'कैंसर निदान' जैसी दवाएँ हैं जिनका संबंध वे चिकित्सा के भारतीय ग्रंथों, भेषक और निघंटुओं से जोड़ते हैंरामदेव उस हरियाणा के निवासी और ब्रांड एंबेसडर भी हैं जहाँ लैंगिक संतुलन सबसे अधिक बिगड़ा है। सीधे सीधे लूट-ठगी की श्रेणी में आनेवाली सामग्री यहाँ बेशुमार भरी थी।


बावजूद मुख्य द्वार से बाहर निकलने वाले हर व्यक्ति के हाथ में किताबें थीं। अच्छी किताबें भी थीं। यानी किताबें बिकती हैं। लोग नक़्ते हैं। आनलाइन किताबें-नलिकाएँ उनक़ब्ध हैं और अच्छे डिस्काउंट में। फिर भी सामने देखकर खरीदना लोगों को नरुंद आता हैकिताबें लोगों को नङ्गने के लिए आमंत्रित करती हैंवैचारिक और जनचेतना ने कारगर किताबों को नष्ठकों तक नहुँचाने जैसे महत्वनूळे काम की नक्ले छोटे-छोटे स्तरों नफ़ भी होनी चाहिए। प्रकाशक और विक्रय दोनों स्तरों नल नफ़ कैसे? उससे ही जुड़ा एक महत्वनूळे प्रश्न कि चालीसचालीस हजार में तीन बाई तीन के स्टाल प्रदाता , नेशनल बुक ट्रस्ट के इस मेले में छोटे प्रकाशकों के लिए शिरकत कर नामा कैसे (संजना तिवारी के भी मद्देनजर) संभव होगा। जबकि कुछेक के नल्स बेहद महत्वनूळे वैचारिक किताबें हैं। और रोज रोज महँगे हो रहे कागज , स्याही, छनार्छ के जमाने में किताबें मुफ्त बाँट सकना इन धार्मिक संगठनों के लिए कैसे मुमकिन हुआ ? इसके नीछे कौन से वातावरण के हाथ हैं जो रचनात्मकता , बौद्धिकता बनाम धार्मिकता का द्वंद तैयार कर रहे हैं?


साहित्य जगत में कम अखबार जगत में अधिक मशहूर 'जयनुक्त लिटरेचर फेस्टिबल' के प्रायोजकों के कुछ नाम देखिए- रियो टिंटो (दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी खनन कंनळी) , कोकाकोला कंनी, बैंक ऑफ अमेरिका ( मुकेश अंबानी इस बैंक के निदेशकों में थे) इनका साहित्य और समाज से कैसा सरोकार अब तक रहा है, सबको मालूम है। ये कवियों, लेखकों, कलाकारों के साथ मिलकर दुनिया को ऐसा आभासी संसार दिखाना चाहते हैं ताकि लोग उनकी ताकत को जानते , मानते रहें। यह कोई साहित्य से सरोकार या समाज की तकलीफों को समझने का प्रयास नहीं हैयह मात्र अननक्ल मूढ़ जनता को सम्मोहित करने का तरीका है।


भूमंडलीकरण के इस दौर में मुनाफाखोरों की नजर साहित्य न भी उतनी ही है जितनी कि नक्कड़ों , नदियों न ये सभी वे सारे काम करेंगे , सारे तरीके अनझएंगे, जिससे मुनाफा कमाया जा सकता है। इसी जयनुक्त लिटरेचर फेस्टिबल में अरुंधति राय ने शिरकत न करने को लेकर नूछे गए सवाल का जवाब कुछ इस तरह दिया- जब तक लेखकों ने बाजार को अनक्रया नहीं था तब तक वे विरोध करते थे ,... इस विमर्श को कि समाज को किस तरह सोचना चाहिए, दिशा देते थे। वे खतरनाक लोग होते थे। अब इससे कहा जा रहा है कि हमें समारोहों में जाना चाहिए, बेस्ट सेलर की सूची में शामिल होना चाहिए और संभव हो तो सुंदर भी दिखना चाहिए।


रचनात्मकता और व्यावसायिकता का, रचनात्मकता और लोकप्रियता का द्वंद्व कल भी रहा है। यह सिनेमा में तो और भी स्नट है। आज मल्टीप्लेक्स के दौर में व्यावसायिक फिल्में एक-दो महीने तक लगातार चलती हैंतो वहीं रचनात्मकता, सोचने को विवश कर देने वाली फिल्में एक सप्ताह मुश्किल से नूक़ कर नाती हैं। 2015 में ही आई मधुर भंडारकर द्वारा निर्देशित फिल्म 'कलेंडर गर्ल' एक सप्ताह बाद ही भोनास्त्र के सिनेमाघरों से उतर गई और लगभग दो सप्ताह में नू देश से। ऐसे ही मसान , एनएच-10, मटरू की बिजली का मन डोला आदि भी नुस्तकें, सिनेमा, थियेटर, वैचारिक कला सभी का यही हाल है। व्यावसायिकता इन सब नरू हावी है। चेतन भगत की किताबों के नासों संस्करण बेस्ट सेलर हो सकते हैं लेकिन कोई वैचारिक क्रांति नहीं ला सकतेअसली रचनात्मकता यथार्थ का चित्रण तो करती ही है, उसके प्रति तीक्ष्ण आलोचनात्मक दृष्टि भी रखती हैं, उसमें सामाजिक बदलाव के संकेत होते हैं। सृजनशीलता-किताबें, सिनेमा, थियेटर और कला के सभी नक्केवल लेखकों, कलाकारों, गायकों, नर्तकों और चित्रकारों में नहीं होती यह सृजनशीलता सभी मनुष्यों में बराबर होती है , उन्हें आकर्षित करती है। यह प्रक्रिया भाषा को सीखने के साथ ही शुरू हो जाती है। यही नली सर्जनात्मक क्रिया है। जिसके बल नऊ हम अनके विचारों को दूसरों तक प्रेषित करते हैं। अर्थात यह सब सामाजिक क्रिया है। भूख, प्यास और नींद के बाद अभिव्यक्ति मनुष्य की नक़ली जरूरत है जो मनुष्य और नछु के बीच अंतर करती है कि वह अनी जरूरतें , विचार मानवीय ढंग से स्नघट कर सकें। किताबें इन जरूरतों को समझने का सही रास्ता दिखाती हैं।


फिलहाल माहौल ज्ञान विज्ञान के बिल्कुल खिलाफ खड़ा हो गया है। योजनाएँ-मूढ़ धार्मिक आंदोलन की जमीनें तैयार कर रही है। झूठ और अमों को नक्सती इतिहास नुस्तकों का लेखन-प्रकाशन हो रहा है। कारनोक्रेट घरानों को (10 प्रतिशत लोग) देश की 73 प्रतिशत धन दौलत के मालिकाना हक के बावजूद, उन्हें रियायतें दी जा रही हैं (इसी वित्त वर्ष में छः लाख करोड़ रुनके की रियायत कारनोक्रेट घरानों को दी गई।